मोर्य साम्राज्य इन हिंदी pdf /मौर्य काल notes/मोर्य साम्राज्य Notes in hindi PDF
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मौर्य साम्राज्य (323 ई.पू. से 185 ई.पू. तक)
मौर्य काल/मौर्य साम्राज्य मौर्य साम्राज्य की स्थापना
यह भी पढ़े :-
मौर्य साम्राज्य का समय काल क्या था?
● मौर्य साम्राज्य का समय काल 323 ईस्वी पूर्व से 185 ईस्वी पूर्व था।
● मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ ही भारतीय इतिहास सुदृढ़ धरा पर अनतरित होता है।
● वीदेशी राज्यों से कुटनीतिक संबंधों की शुरुआत होती है।
● भारत के राजगीतिक एकीकरण एवं भारत वर्ष को वास्तविक संकल्पना दृष्टिगोवर होती है।
● मौर्य साम्राज्य के इतिहास के विषय में हमें विभिन्न स्रोतों से जानकारी मिलती है।
● मौर्य साम्राज्य के इतिहास के विषय में हमें जिन स्रोतों से जानकारी मिलती हैं उनमें से मुख्य स्रोत इस प्रकार से हैं :-
◆ कौटिल्य का अर्थशास्त्र ,
◆ वेशाखदत्त का मुद्राराक्षस,
◆ सोमदेव की कथा सरितसागर
◆ क्षेमेन्द्र की वृहत्कथामंजरी
◆ दीपवंश, कल्पसूत्र
◆ स्ट्रेबो, प्लूटार्क, जस्टिन आदि यूनानी यात्री
◆ फह्यान, दनसांग इत्सिंग आदि चीनी यात्री
◆ रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख
◆ अशोक के अभिलेख
● मगध (बिहार) का प्रथम शासक हर्यक वंश का बिंबिसार था।
● बिंबिसार के पुत्र उदयनी ने पाटलिपुत्र नगर की स्थापना की तथा उसे मगध की राजधानी बनाया।
● हर्यक वंश के बाद शिशुपाल वंश और उसके बाद नंद वंश के राजाओं ने मगध पर शासन किया।
● नंदवंश में कुल 9 शासक हुए जिन्हें नवनंद कहा जाता है इनमें से प्रथम महापदम नंद और अंतिम धनानंद था।
● सिकंदर के आक्रमण के समय मगध पर धनानंद का शासन था।
● विदेशी आक्रमण को लेकर तक्षशिला के शिक्षक चाणक्यऔर धनानंद के मध्य विवाद हो गया।
● चाणक्य ने धनानंद को मगध की सत्ता से हटाने हेतु चंद्रगुप्त मौर्य को चुना तथा उसे तक्षशिला विश्वविद्यालय (पेशावर- पाकिस्तान) राजनीति और युद्धकला की शिक्षा दिलवाई
● 323 ई.पु. चंद्रगुप्त मौर्य ने पंजाब की आयुधजीवी जाति तथा चाणक्य की सहायता से धनानंद को पराजित कर दिया।
मौर्यकालीन शासक:-
चन्द्रगुप्त मौर्य- ( 322 ई0 पू0 से 298 ईo पूo) :-
● इनका जन्म 345 ईसवी पूर्व हुआ।
● इनकी माता का नाम मुरा गुरु का नाम चाणक्य था।
मौर्य वंश का संस्थापक कौन था ?
● इन्होंने धनानंद को पराजित कर मगध में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की ।
● इनकी जाति को लेकर भारत के इतिहासकार और विदेशी इतिहासकार अलग-अलग मत रखते हैं इसी कारण इनकी जाती भारतीय इतिहास का एक विवादित प्रश्न है।
● ब्राह्मण साहित्य इन्हें शुद्र बताता है।
● जैन व बौद्ध साहित्य इन्हें क्षत्रिय बताता है
● विदेशी इतिहासकार इन्हें कुलीन/वैश्य बताते हैं
● यूनानी इतिहासकार चंद्रगुप्त मौर्य को सैंड्रोकॉटोस और एंड्रोकोटस नाम से संबोधित करते थे
● चंद्रगुप्त मौर्य ने 'अर्थशास्त्र' पुस्तक के रचयिता कौटिल्य/ चाणक्य को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया
● चंद्रगुप्त मौर्य भारत का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट था जिसने संपूर्ण भारत को जीत कर एक कर दिया
● चन्द्रगुप्त मौर्य ने अगने गुरु विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य (कौटित्य) की सहायता से नंद वन्श के अन्तिम शासक घनानंद को हराकर 322 ई.पू. मौर्य सात्राज्य की स्थापना की।
● चन्द्रगुप्त मौर्य की चन्द्रगुप्त' संज्ञा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है।
● मगध के राजसिंहसन पर बेठकर चन्द्रगुप्त ने एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जो सम्पूर्ण भारत में फैला था
● चन्द्रगुप्त के विषय में प्लूटार्क कहता है कि "चन्द्रगुप्त ने छः लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत पर अधिकार कर लिया।"
● चन्दगुप्त मौर्य ने उत्तरी-पश्चिमी भारत को सिकन्दर के उत्तराधिकारियों से मुक्त कर दिया
●चन्दगुप्त मौर्य ने नंद वंश का उन्मूलन किया।
● चन्दगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को पराजित कर संधि के लिए विवश कर दिया।
● चन्दगुप्त मौर्य ने जिस नाम्राज्य की स्थापना की, उसकी सीमाएं उत्तर - पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक एवं पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैली हुई थी ।
● 305 ई० पू0 में मेसिडोनिया के शासक सेल्यूकस एवं चन्द्रगुप्त के मध्य युद्ध हुआ , जिसमें सेल्यूकस पराजित हुआ ।
● दोनों के बीच सम्पन्न हुई संधि की शर्तें इस प्रकार थीं -
◆ सेल्यूकस ने मौर्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया यह भारत का प्रथम अंतरराष्ट्रीय विवाह था ।
◆ दहेज के रूप में ऐरिया, अराकोसिया, जेड्रोसिया एवं पेरीपेमिसडाई के क्षेत्र चन्द्रगुप्त को दिये।
◆ प्लूटार्क के अनुसार चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकत्त को 500 हाथों उपहार में दिए।
◆ सेल्यूकस ने अपने एक राजदूत 'मेगस्थनीज' को चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा। जिसने 'इण्डिक' नामक पुस्तक की रचना की
● चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण विजय के विषय
में जानकारी तमिल ग्रंथो 'अहनामूर' और मुरनानुरु तथा अशोक के अभिलेखों से मिलती है।
● चन्द्रगुप्त एक कुशल गोद्धा, सेनानागक तथा महान विजेता ही नहीं था, बल्कि योग्य शासक भी था।
● उसने अपने मुख्यमंत्री कौटिल्य की सहायता से ऐसी शासन व्यवस्था का निर्माण किया, जो उस समय के अनुकूल थी।
● अपने जीवन के अन्तिम चरण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन मुनि भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा लेकर श्रनणवेलगोला (मैसूर, कर्नाटक) में
स्थित चन्द्रगिरी पहाड़ी पर करीब पर 298 ई.पू. में उपवास के द्वारा शरीर त्याग दिया।
बिन्दुसार-(298 ईo पू0 से 272 ई० पू0) :-
● चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार 298 ई. पू. में साम्राज्य का उत्तरधिकारी बना।
● स्ट्रेबो ने बिन्दुसार को अलिट्रोकेड्स कहा है।
● पलीट ने बिन्दुसार को अमित्रधात अर्थात् शत्रुओं का वध करने वाला बताया ।
● बिन्दुसार ने अपने पिता द्वारा जीते गए क्षेत्रों को पूर्ण रूप से सुरक्षित बनाये रखा।
● 'दिव्यावदान' में बिन्दुसार के समय में
तक्षशिला में हुए दो विद्रोहों का वर्णन है।
● इन विद्रोहों को दबाने के लिए बिन्दुसार ने पहले अपने पुत्र अशोक, फिर सुसीम को
भेजा।
● स्ट्रेबो के अनुसार यूनानी शास्क ऐण्टियोकस प्रथम ने बिन्दुसार के दरबार में डाइमेकस नाम के राजदूत को भेजा।
● बिन्दुसार ने ऐण्टियोकस प्रथम से मदिरा, सूखे अंजीर एवं एक दार्शनिक भेजने की प्रार्थना की थी।
● बिन्दुसार के समय में मिस्र के राजा फिलडेल्फस (टालमी द्वितीय) ने पाटलिपुत्र में
डायोनिसस नाम के एक राजदत को भेजा
अशोक-(273 ई0 पू0 से 232 ई0 पूo) :-
● बिन्दुसार की मृत्यु की उपरान्त अशोक विशाल मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा।
● वैसे तो अशोक 273 ईo पू0 में ही मगध के राजसिंहासन पर बैठ चुका था परन्तु करीब चार वर्ष के सत्ता संघर्ष के बाद अशोक का विधिवत् राज्याभिषेक करीब 269 ई0 पू0 में हुआ।
● अभिलेखों में अशोक को 'देवानामप्रिय', 'देवनाप्रिय्दर्शी एवं राजा के सम्बोधन से सम्बोधित किया गया है।
● सर्वप्रथम मस्की अगिलेख में 'अशोक' नाम मिलता है।
● गुर्जरा लेख में भी इसका नाम 'अशोक ही मिलता है।
● अपने राज्याभिषेक के सातवें वर्ष में
अशोक ने कश्मीर एवं खोतान क्षेत्र के अनेक भागों को विजित कर मौर्य साम्राज्य में मिलाया।
● अशोक के प्राप्त सभी अभिलेखों से
यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका साम्राज्य उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत (अफगानिस्तान), दक्षिण मे कर्नाटक, पश्चिम में काठियावाड़
एवं पुर्व में बंगाल की खाड़ी तक था ।
● कल्हण की राजतरंगिनी के अनुसार अशोक ने कश्मीर में वितस्ता नदी के किनारे 'श्रीनगर'
नामक नगर की स्थापना की तथा नेपाल में ललितपत्तन नगर बसाया।
● एक युग पुरुष के रूप में अशोक ने मौर्य साम्राज्य को अपनी नीतियों के माध्यम से नई दिशा दी ।
● वह अत्यधिक व्यापक दृष्टि से युक्त व्यक्तित्व था।
● उसने तत्कालीन समस्याओं को समझते हुए उन्हें सुल्झाने का प्रयास किया।
● उसका धम्म एवं अन्य नीतियाँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी तत्कालीन
समय में थी।
● वे सार्वजनिक, सार्वभौमिक व सार्वयुगीन है, जो एक अकेले राष्ट्र की धरोहर नहीं हो सकती । सन्पूर्ण विश्व की घरोहर है, ऐसी नीतियों के प्रवर्तक के रूप मे हम अशोक को महान् कहते
है।
● अशोक ने पितृवत् शासन का सिद्धान्त दिया तथा लोक - कल्याण को राज्य का सबसे महत्त्नपूर्ण उद्देश्य बनागा।
● कौटिल्य के लोक-कल्याण के आदर्श को आतमसात् किया
● वृक्षारोपण, कृषि, सिंचई, सार्वजनिक निर्माण (कुएं, सराय आदि) के कार्य कराये।
● इनसे रोजगार का सुधार हुआ।
● आर्थिक एव आधारभूत संरचना में व्यापक सुधार हुआ एवं राज्य को आर्थिक व सामाजिक रूप से मजबूत बनाया, जो आज भी प्रासंगिक है ।
● अशोक ने धम्म का प्रतिपादन करके राजा, प्रजा एवं नौकरशाही हेतु संविदा तैयार की।
● सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृत्कि एकता व विकास को बढ़ावा दिया।
● उसका उद्देश्य राष्ट्र निर्माण करना था।
● अशेक एक मात्र ऐतिहासिक शासक हुए, जिन्होंने प्रजा से प्रत्यक्ष सम्पर्क किया।
● इस हेतु अशोक ने धम्म यात्राएँ की एवं प्रतिवेदकों आदि अधिकारियों की नियुक्तियाँ की
● भौतिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार एवं शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए उसने समाज के कमजोर वर्गों को गतिशीलता प्रदान की, कृषि भूमि का विस्तार किया तथा युद्ध
बन्दियों आदि को वनो व खानों में लगा दिया।
● वे एक मात्र ऐसे शासक हुए जिन्होनें प्रजा के आध्यात्मिक व नैतिक उत्थान के साथ-साथ उत्पादन शक्तियों पर भी ध्यान दिया।
● अशोक ने ग्रामीण विकास पर अधिक ध्यान दिया।
● अशोक ने साम्राज्य में 84000 स्तूपों का निर्माण कराया।
● राज्स्व का पुनर्वितरण सार्वजनिक हित एवं लोकनुरंजन कार्य में किया तथा अर्थव्यवस्था को तीव्रता व गति दी।
● इन कार्यों के फलस्वरूप आम जनता की क्रय शक्ति में वृद्धि हुई।
● अशोक ने वैदेशिक नीति को समसामयिक बना दिया तथा तत्कालीक सम्राटों के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए एवं उच्च स्तरीय धम्म आयोग भेजे. जिससे अन्त संबंधो की स्थापना
हुई।
● अशोक ने सम्पूर्ण विश्व को धार्मेक सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया, सभी धर्मों को समान महत्त्व व आदर प्रदान करने पर बल दिया तथा जनता पर धर्म को बलात् नहीं थोपा।
● एक धर्म, एक भाषा, प्रायः एक लिपि का अनुसरण कर सम्पूर्ण भारतवर्ष का एकीकरण किया।
● समान नागरिक संहिता व दण्ड संहिता का क्रियान्वयन कर सामाजिक न्याय एवं कानून के शासन की स्थापना की।
● विभिन्न वर्गो व धर्मो के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किए,जो प्रगतिशील अर्थव्यवस्था तथा राज्य की प्रगति हेतु नितान्त आवश्यक है।
● अशोक सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में बाधना चाहता था एव कलिंग हाथियों हेतु प्रसिद्ध एवं व्यापार- व्यवसाय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था
● समुद्र के किनारे होने के कारण विदेशी व्यापार की दृष्टि से इसका महत्त्व था।
● अशोक ने अपने अभिषेक के आठवें वर्ष में लगभग 261 ई0 पू० में कलिंग पर आक्रमण किया।
● हाथीगुम्फा अभिलेख से प्रकट होता है कि सम्भवतः कलिंग पर नंदराज नाम का राजा
शासन करता था।
● उस समय कलिंग की राजधानी तोशली थी ।
● कलिंग युद्ध में 1 लाख लोग मारे गये व 1.5 लाख लोग बंदी बना लिए गए ।
● इस भीषण नरसंहार से अशोक का मन विचलित हो गया तथा उसने भविष्य मे युद्ध की
नीति को त्यागने की घोषणा की।
● अब अशोक ने भेरी घोष को त्याग कर धम्म घोष को अपनाया।
मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक कौन था?
● अशोक के बाद, जालोक, कुणाल, दशरथ, सम्प्रति, शालिशूक, देववर्मन आदि शासकों ने शासन किया बृहद्रथ अन्तिम मौर्य सम्राट था।
● बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र ने 184 ई. पू. में उसकी हत्या कर एक नये शुंग सम्राज्य की नींव रखी।
मौर्य वंश का अंत कैसे हुआ?
मौर्य साम्राज्य का पतन :-
● अशोक के बाद जितने भी राजा हुये वो कुशाल राजा नहीं थे। उनकी अकुशलता कारण मौर्य साम्राज्य का अंत हो गया।
अशोक के अभिलेख :-
● अशोक का इतिहास मुख्यतः हमें उसके अभिलेखो से ही ज्ञात होता है।
● अब तक हमें अशोक के 40 से अधिक अभिलेख प्राप्त हो चुके है।
● अशोक ने अपने अधिकांश अभिलेख ब्राहमी लिपी और पाली भाषा में उत्कीर्ण करवाए।
● अशोक के अभिलेख को सर्वप्रथम 1837 ई में जेम्स प्रिसेप्स के द्वारा पढा गया।
अशोक के अभिलेखो को मुख्यतः तीन भागो में बाँटा जा सकता है।
(अ) शिलालेख
(ब) स्तम्भलेख
(स) गुहालेख
● अशोक ने इन अभिलेखो को उत्किर्ण करवाने हेतु 4 लिपियो का प्रयोग किया :-
◆ ब्राह्मी
◆ खरोष्टी
◆ युनानी
◆ अरमाईक
(अ) शिलालेख:-
● यह भी दो भागो में बटां हुआ है-
(अ) लघु शिलालेख
(ब) वृहद् शिलालेख
(अ) लघु शिलालेख:-
● अशोक के लघु शिलालेख दो भागो में बांटे गए है-
(1) उतरी और
(2) दक्षिणी लघु शिलालेख।
● अशोक के 4 लघु शिलालेखो में उसका नाम अशोक मिलता है।
(1) यास्की (कर्नाटक)
(2) नेतूर (कर्नाटक)
(3) उद्गोविल (कर्नाटक)
(4) गुर्जरा (मध्यप्रदेष)
● अशोक का एक भाब्रु लघु शिलालेख बैराठ सभ्यता जयपुर से प्राप्त हुआ है। जिसमें यह ज्ञात होता है कि अशोक ने बोद्ध धर्म अपना लिया था। यह शिलालेख वर्तमान में कलकता संग्रहालय में रखा हुआ है।
● कांधार (अफगानिस्तान) से प्राप्त लघु शिलालेख में अरामाइक व यूनानी लिपि का प्रयोग हुआ है।
● तक्षशीला (पाकिस्तान) से प्राप्त लघु शिलालेख में भी अरामाइक लिपि का प्रयोग हुआ है।
● लघुशिलालेखों को अशोक ने वृहद शिलालेखों से पहले खुदवाया था तथा यह शिलालेख राजअधिकारियों से सम्बन्धित थे।
(ब) वृहद् शिलालेख:-
● अशोक के इन अभिलेखो की संख्या 14 है तथा यह 8 विभिन्न स्थानो सें प्राप्त हुए है-
(1) शाहवाद गढ. (पाकिस्तान)
(2) मान सेहरा (पाकिस्तान)
(3) धोली (उड़ीसा)
(4) जोगढ. (उड़ीसा)
(5) कालासी (उतराखण्ड)
(6) सोपारा (महाराष्ट्र)
(7) गिरनार (गुजरात)
(8) एरागुडि (आंध्रप्रदेष)
● शाहवाद गढी व मानसेहरा से मिले दोनो शिलालेखो की लिपि खरोष्ठी है।
● अशोक के शिलालेखो में 7वाँ सबसे लम्बा तथा 13वाँ सबसे बड़ा है।
● अशोक ने 8वें अभिलेख में अपनी बोधगया (बिहार) की यात्रा का वर्णन किया है। जो उसने अपने राज्याभिषेक के 10 वें वर्ष की थी।
● अशोक ने अपने प्रथम शिलालेख में पशुबली रोकने का आदेश दिया है।
अशोक के शिलालेख और उनके विषय
शिलालेख प्रथम:-
● इस शिलालेख मे पशु बलि की निन्दा की गई है और पशु बलि पर रोक लगाने की बात कही गई है।
शिलालेख द्वितीय:-
इस शिलालेख में चोल पाण्ड्य सतीचपुत्र केरलपुत्र व श्रीलंका में अशोक द्वारा मनुष्य व पशुओ हेतु की गई चिकित्सा व्यवस्था का उल्लेख किया गया है।
तृतीय शिलालेख:-
● अशोक ने अपने अधिकारी राजूका व प्रादेशिक को प्रति पाँच वर्ष में धर्म प्रचार हेतु साम्राज्य का दौरा करने को कहा है तथा ब्राहमणो व श्रमणो के प्रति उदार होना अच्छा बताया है।
चोथा शिलालेख:-
● इसमें अशोक ने युद्धघोष को छोङकर धम्म घोष अपनानें की घोषणा की है।
पाँचवां शिलालेख:-
● अपने राज्याभिषेक के 13 वें वर्ष की गई धर्म महामात्रो की नियुक्ति का उल्लेख किया है।
छठा अभिलेख:-
● इस अभिलेख में अशोक ने प्रजा की भलाई को अपना प्रथम व उतम कर्तव्य बताया है। एवं धर्म महामात्रों को आदेश जारी किया कि वे राजा के पास कभी भी सूचना प्रेषित कर सकते है।
सातंवा अभिलेख:-
● इस अभिलेख में अशोक ने सभी सम्प्रदायों को मिलजुलकर रहने का सन्देष दिया है।
नोट:- सांतवा शिलालेख 14 शिलालेखो में सबसे लम्बा है।
आठवां शिलालेख:-
● अशोक ने अपने राज्यभिषेक के दसवे वर्ष की गई बौद्ध गया यात्रा का वर्णन किया है तथा इस अभिलेख में अशोक द्वारा शिकार का त्याग करने व धम्म यात्रा की सूचना दी गई है।
नौवां शिलालेख:-
● लोक रिति रिवाजो को छोङकर आदार व शिष्टाचार को अपनाने का अनुरोध किया है तथा खर्चीले समारोह रोकने की बात कही है।
दसवां शिलालेख:-
● इसमें अशोक ने राजा व उच्च अधिकारियों को हमेशा प्रजा के हित को सोचने का आदेश दिया है।
ग्यारहवां शिलालेख:-
● इस शिलालेख में धम्म की व्याख्या की गई है।
बारहवां शिलालेख:-
● सभी सम्प्रदायो के मध्य धार्मिक सहिष्णुता की बात कही गई है, तथा स्त्री महामात्रो की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
तेरहवां शिलालेख:-
● इस शिलालेख में अशोक ने कलिंग युद्ध में अपने ह्रदय परिवर्तन और अपने पाँच पङोसी राजाओं के नाम लिखवाएं है।
नोट:- अशोक के शिलालेखो में सबसे बङा तेरहवां शिलालेख है।
चैदवां शिलालेख:-
● इस शिलालेख में अशोक ने धार्मिक जीवन जीने की प्रेरणा दी है तथा 11वें , 12 वें, 13वें शिलालेख के स्थान पर दो पृथक शिलालेख खुदवाने का उल्लेख किया गया है।
● 14वें शिलालेख में सभी अभिलेखों में जोग लतियां रह गई उनका वर्णन किया है।
(ब) अशोक के स्तम्भ लेख:-
● स्तम्भ लेखो को दो भागो में बांटा हैं-
(1) वृहद स्तम्भ लेख
(2) लघु स्तम्भ लेख
(1) वृहद स्तम्भ लेख:-अशोक के 7 वृहद स्तम्भ लेख 6 विभिन्न स्थानो से प्राप्त हुए हैं-
(1) दिल्ली टोपरा:-
● यह उतरप्रदेष से प्राप्त हुआ था जिसे सुल्तान फिरोज तुगलक द्वारा दिल्ली में स्थापित करवाया गया।
● दिल्ली टोपरा स्तम्भ लेख में सात स्तम्भ लेख उत्कीर्ण है जबकि अन्य स्तम्भ लेखो में 6 स्तम्भ लेख उत्कीर्ण है।
(2) मेरठ (यु.पी.):-
● यह स्तम्भ लेख मेरठ से प्राप्त हुआ जिसे फिरोज तुगलक ने दिल्ली में स्थापित करवाया।
(3) कोसाम्बी (यु.पी.):-
● इस स्तम्भ लेख को वर्तमान में प्रयाग स्तम्भ लेख के नाम से जाना जाता है। जिसे अकबर द्वारा कोसाम्बी से लाकर प्रयोग में लाकर स्थापित करवाया गया ।
(4) लोरिया अरराज -
● बिहार में
(5) लोरिया नन्दगढ -
● बिहार में
(6) रमपुरवा -
● बिहार में
(2) लघु स्तम्भ लेख:
● अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भो पर उत्कीर्ण है उन्हे लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है।
● यह पाँच स्थानो से प्राप्त हुए है-
(1) साँची (एम.पी.)
(2) सारनाथ (यु.पी.)
(3) कोसाम्बी (यु.पी.)
(4) रूम्मिपदेई (नेपाल)
(5) निगिवा (नेपाल)
● कोशाम्बी लघु स्तम्भ लेख में अषोक ने अपनी रानी करूवा की द्वारा किए गये दान का उल्लेख किया है। इस कारण इसे रानी का अभिलेख कहा जाता है।
● रूम्मिनदेई लघुस्तम्भ लेख में अशोक ने अपने राज्यभिषेक के 20वें वर्ण की गई लुम्बिनी ग्राम की यात्रा का वर्णन किया है।
अन्य महत्वपुर्ण तथ्य:-
अशोक का प्रथम पृथक शिलालेख :-
● इसमें समस्त प्रजा को अपनी संतान बताया है।
अशोक का द्वितीय पृथक शिलालेख :-
● अशोक अपने धर्म महामात्रों को आदेश देता है कि एक अकेला व्यक्ति भी उनके अभिलेखों को सुन सकता है।
● रूद्रदामन के जूनागढ अभिलेख में यह उल्लेख मिलता है कि सौराष्ट्र क्षेत्र में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पुष्यगुप्त वैष्य को अपना राज्यपाल नियुक्त किया जिसने इस क्षेत्र के किसानों को सिचाई सुविधा देने के लिए सुदर्षन झील का निर्माण करवाया।
(स) गुहालेख
● मौर्य युग में पर्वतो की गुफाओं को काटकर निवास स्थान बनाने की कला का पूर्ण विकास हो चुका था।
● अशोक व उसके पुत्र दषरथ के समय में बराबर ( बिहार) व नागार्जुनी की पहाङियो (बिहार) को काटकर आजीवक समप्रदाय के साधुओं हेतु आवास बनाए गए। इस गुफाओं की संख्या 7 है अतःइन्हे सात घर कहा जाता है।
● अशोक ने बराबर की पहाङियो में तीन गुफाओं का निर्माण करवाया-
(1) सुदामा की गुफा
(2) करण चौपङ
(3) विश्व झोपङी
● बराबर की गुफाओं में लोयस ऋषि की गुफा सबसे प्रसिद्ध है। जिसका निर्माण दषरथ के द्वारा करवाया गया।
● नागार्जुनी गुफाओं में दषरथ ने तीन गुफाएं बनवाई-
(1) गोपिका
(2) विथिक/वेदायिक
(3) वापिया
अशोक द्वारा निर्मित स्तम्भ :-
● स्तम्भ मौर्ययुगीन वास्तुकला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है तथा इन स्तम्भो का निर्माण अशोक द्वारा करवायाँ जाने के कारण इन्हे अशोक की लाट भी कहा जाता है।
● अशोक के यह सभी स्तम्भ चमकदार लम्बे तथा एक हि चुनार पत्थर से बनाए हुए है।
● अशोक के इन स्तम्भों की संख्या निश्चित नहीं है। फाहयान ने 6, हेन्सांग ने 15 तथा भारतीय विद्वानो ने 30 से अधिक बताई है।
● अशोक के स्तम्भो के मुख्य 5 अंग माने जाते है :-
(1) मेखला या लाट
(2) घंटा या उल्टा कम्बल
(3) चैकी
(4) पशु की मुर्ति
(5) अशोक चक्र
● इन स्तम्भो के शीर्ष पर अलग-2 पशुओं की आकृति मिली है। जैसे-
(1) बसाढ (बिहार) -
◆ शेर की मुर्ति (सिंह स्थम्भ)
(2) संकीशा (यू.पी.) -
◆ हाथी की मुर्ति
(3) रमपुखां (बिहार)-2 -
◆ एक पर शेर व एक पर बैल
(4) सारनाथ (वाराणसी यू.पी.) -
◆ चार शेर की मुर्ति-राष्ट्रीय प्रतिक
(5) लारिया नन्दगढ (बिहार) -
◆ शेर की मुर्ति
(6) सांची (एम.पी.) -
◆ चार शेर की मर्ति
.
● सारनाथ स्तम्भ में चार शेर पीठ सटाए चारों दिशाओं की ओर मुँह किये हुए हैं। तथा यह हमारा राष्ट्रीय प्रतिक है।
● सारनाथ का स्तम्भ का स्तम्भ हल्के गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से बना है। इस स्तम्भ की चैकी पर हाथी,शेर,घोङा,बैल का चित्रण है। तथा बीच से अषोकचक्र बना हुआ है।
स्तूप:-
परिभाषा :- महात्माबुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को 8 भागो में बांट दिया गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया साधारणतः इन्ही अर्धगुम्बदाकार आकृतियों को स्तुप कहा जाता है।
● सबसे प्राचीन स्तूप पीपरहवा (नेपाल) का स्तूप है जो मौर्याकाल से पूर्व का है।
● बौद्ध परम्पराओं के अनुसार अकेले अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया।
● अशोक के काल में बने स्तूपो में ईटों का प्रयोग किया गया है।
● अशोक द्वारा बनाया गए स्तूपो में मध्यप्रदेष के रायसेन जिले के विदिषा के समीप सांची का स्तूप सबसे प्रसिद्ध है तथा इस स्तूप को खोजने का श्रेय जनरल रायलट को जाता है जिन्होने 1818 ई. मे इसे खोजा।
अशोक का धम्म
धम्म के प्रमुख सिद्धान्त :-
1. सहिष्णुता :-
● जन सामान्य के मध्य आत्म सहिष्णुता.
पिभिन्न पिवारों, धर्मों एवं आस्थाओं के मध्य सहिष्णुता ।
2 अहिंसा :-
● सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का सिद्धान्त
प्रतिपदित किया।
3. आडम्बरहीनता : -
● धर्मानुष्ठानों तथा बलि चढ़ाने को अर्धहीन कहा।
4. लोककल्याण :-
● वृक्षारोपण, कुएँ एवं सरायों अदि का
निमार्ण कार्य उत्तका धम्म सर्वमंगलकारी था, जिसका उद्देश्य प्रागिमात्र का
5. श्रेष्ट पवित्र नैतिकता :-
● श्रेष्ठ नैत्कि, पवित्र आचरण, सदाचार एवं सत्यवादिता गर बल दिया।
● विभिन्न वर्गों, जातियों और संस्कृतियों को एक सूत्र में बाँधने तथा अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने जिन आचारों की संहिता प्रस्तुत की, उसे अभिलेखों में ‘धम्म’ कहा गया है।
● ‘धम्म’ के सिद्धान्त हर धार्मिक सम्प्रदाय से संबंध रखने वाले लोगो के लिए स्वीकार्य थे।
● अशोक के अभिलेखों में उस व्यापक नीति अर्थात् धम्म का उल्लेख किया गया, जो सामान्य व्यवहार को नए ढांचे में ढालने के लिए आवश्यक थी।
● ‘धम्म’ के बुनियादी सिद्धान्तों में अशोक ने सर्वाधिक बल सहिष्णुता पर दिया।
● प्रथम स्वयं व्यक्तियों की सहिष्णुता, द्वितीय विभिन्न विचारों, विश्वासों, धर्मों एवं भाषाओं में सहिष्णुता, इसे अशोक ने 7, 11 व 12वें शिलालेख व दूसरे लघु शिलालेख में उल्लेखित किया। जिसमें माता-पिता की सेवा, गुरुओं का आदर, दासों के साथ उचित व्यवहार, धर्म-सार की वृद्धि, वाक्संयम तथा सम्वाय पर बल दिया।
● धम्म का दूसरा बुनियादी सिद्धान्त अहिंसा था, जिसका तात्पर्य युद्ध व हिंसा द्वारा विजय प्राप्ति का त्याग और जीव हत्या का विरोध था जो प्रथम व 11वें शिलालेख व पांचवें स्तम्भ लेख में मिलते हैं।
जनकल्याणकारी अवधारणा -
● धम्म नीति में ऐसे कार्य भी शामिल थे, जो आम नागरिकों के कल्याण से संबंधित थे।
● जो सातवें स्तम्भ लेख व दूसरे शिलालेख में लिखित है, जिसमें वृक्षारोपण, सराय, सड़के, सिंचाई, कुओं के निर्माण आदि की व्यवस्था थी।
● अशोक ने नवें शिलालेख में अंधविश्वासों के फलस्वरूप जो निरर्थक अनुष्ठान और यज्ञ होते थे, ऐसे बाह्याडम्बरों की निंदा की।
● प्रथम स्तम्भ लेख में धम्म की प्राप्ति के लिए धर्म यात्रा, धर्म मंगल, धर्म दान, शुश्रूषा आदि की व्यवस्था की।
● अशोक दूसरे स्तम्भ लेख में धम्म की परिभाषा बताते हुए कहता है ‘‘अपासिनवे बहुकयाते दया दाने सचे सोचये माधवे साधवे च’’ अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति पापों से दूर रहे, कल्याणकारी कार्य करे, दया, दान, सत्य, पवित्रता व मृदुता का अवलम्बन करे।
● तीसरे स्तम्भ लेख में वह प्रचंडता, निष्ठुरता, क्रोध, घमण्ड एवं ईष्र्या आदि के निषेध का कहता है, इनके लिए व्यक्ति आत्म निरीक्षण अर्थात् ’निज्झति’ करे एवं सबके साथ श्रेष्ठ व्यवहार करे।
● धम्म को फ्लीट ने राजधर्म, राधाकुमुद मुखर्जी ने सार्वभौम धर्म एवं भण्डारकार ने उपासक बौद्ध धर्म कहा।
● अशोक का व्यक्तिगत धर्म बौद्ध था।
● महावंश व दीपवंश के अनुसार अशोक ने मोगलिपुत्र तिस्स की अध्यक्षता में तृतीय बौद्ध संगीति (सभा) बुलाई और मोगलिपुत्र तिस्स की सहायता से संघ में एकता और अनुशासन लाने का प्रयास किया, इससे उसके बौद्ध होने की पुष्टि होती है।
● तथापि ‘धम्म’ में सर्वमान्य आचार तत्वों और नैतिक नियमों का समन्वय था तथा धम्म अत्यन्त ही सरल, सुबोध, पवित्र, नैतिक और व्यावहारिक था।
● उसका धम्म सर्वमंगलकारी था, जिसका उद्देश्य प्राणिमात्र का उद्धार करना था।
धम्म की नीति की क्रियान्वति :-
● अशोक ने धम्म के प्रतिपादन हेतु व्यावहारिक उपाय किए।
● इस हेतु अशोक ने न केवल युद्ध की नीति का परित्याग किया, अपितु आम जन के दुःख-दर्द एवं उनकी आवश्यकताओं को समझा।
● उसने नौकरशाहों को तत्काल न्याय देने तथा लोकहित के कार्य करने हेतु पाबन्द किया।
● अशोक ने सार्वजनिक हित के कार्य किए यथा परिवहन, सिंचाई, कुओं, सरायों आदि का निर्माण कराया।
● इन समस्त सार्वजनिक हित के कार्यों का उद्देश्य धम्म को स्वीकार कराना था।
● अशोक ने धम्म के उपदेशों को पाषाणों पर उत्कीर्ण कराया तथा ऐसी जगहों पर लगाया जहाँ पर आम जन पढ़ सके, इस तरह अशोक ने धम्म को सार्वजनिक एवं सार्वभौम बना दिया।
● हिंसा पर प्रतिबंध लगाया तथा पशुबलि को निषेध किया।
● समान नागरिक आचार संहिता, दण्ड संहिता के सिद्धान्त को जन्म दिया तथा क्रियान्वित किया।
● जगह-जगह धम्म आयोग भेजे एवं विदेशों में भी धम्म का प्रचार-प्रसार किया।
● धम्म महामात्रों की नियुक्ति की व उनके दायित्वों का प्रतिपादन किया।
धम्म की नीति का मूल्याँकन: -
● यद्यपि धम्म के मूल सिद्धान्त सहिष्णुता, अहिंसा एवं सदाचार थे, जो कि भारतीय संस्कृति के प्रारम्भ से ही मूल तत्व रहे हैं तथा वर्तमान में भी उनका महत्त्व यथावत् है।
● अशोक के बाद के सभी शासकों ने इन सिद्धान्तों को स्वीकार किया, तथापि समग्र रूप से यह नीति अशोक के पश्चात् फलीभूत नहीं हो सकी, इसके अनेक कारण थे।
◆ धम्म की नीतियों का अशोक के उत्तराधिकारी उसी रूप में क्रियान्वित नहीं कर सके।
◆ धम्म दुर्बल शासकों, राजनीतिक अनिश्चितता व सीमाओं की असुरक्षा के कारण फलीभूत नहीं हो सका, क्योंकि धम्म की नीति का क्रियान्वयन शान्तिकाल में ही संभव है, जब राष्ट्र आन्तरिक व बाहरी रूप से युद्धों से पूर्णतया मुक्त हो।
◆ परवर्ती शासक अशोक की दूरदर्शिता को नहीं समझ पाये, धम्म महामात्र अपने असीमित अधिकारों द्वारा जनता के कार्यों में अवांछनीय हस्तक्षेप करने लग गये।
◆ सामाजिक तनाव ज्यों के त्यों बने रहे एवं साम्प्रदायिक संघर्ष बराबर चलते रहे, क्योंकि समस्याएं व्यवस्था की जड़ों में निहित थी।
● उपर्युक्त कारणों से धम्म की नीति फलीभूत नहीं हो सकी, तथापि अशोक सराहना का पात्र है कि उसने एक पथ प्रदर्शक सिद्धान्त की आवश्यकता को महसूस करते हुए धम्म की नीति का प्रतिपादन किया, जो वर्तमान में भी प्रासंगिक है।
मौर्य काल की कला :-
● मौर्य काल में प्रथम बार पत्थर की कलाकृतियां मिलती हैं।
● मौर्य कला दो रूपों में उपलब्ध है-
◆ एक के अन्तर्गत राजमहल तथा अशोक स्तंभों में आते हैं
◆ दूसरी लोककला के रूप में परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर ग्रहिणी और वेसनगर की यक्षिणी मौजूद हैं।
● मौर्यकाल के सर्वाेत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्म स्तंभ मानोलिथक हैं। जो धम्म प्रचार के लिए विभिन्न स्थानों में स्थापित किये गये थे। ये चुनार के घूसर रंग के बलुआ पत्थर के बने हैं। स्तंभ सपाट हैं और एक ही पत्थर के बने हुए हैं इन पर चमकीला पालिश है।
मौर्य काल की अर्थव्यवस्था :-
● मौर्यकाल में आर्थिक व्यवस्था का आधार कृषि था।
● इस काल में प्रथम बार दासों को कृषि कार्य में लगाया गया।
● कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को अर्थशास्त्र में सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है।
● जिस भूमि में बिना वर्षा के ही अच्छी खेती होती थी उसे अदेवमातृक कहते थे।
● ‘सीता’ सरकारी भूमि होती थी।
● भू-राजस्व उपज का 1/4 भाग से 1/6 भाग तक होता था।
● राज्य की ओर से सिंचाई का पूर्ण प्रबंध था जिसे सेतुबंध कहा जाता था।
● सिंचाई कर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक थी।
● सूत कातना तथा बुनना सबसे प्रचीन उद्योग था।
● सूती कपड़े के लिए काशी, बंग, मालवा आदि प्रसिद्ध थे।
● बंग मलमल के लिए प्रसिद्ध था।
● चीन से रेशम आयात किया जाता था।
● देशज वस्तुओं पर 4» तथा आयातित वस्तुओं पर 10» बिक्री लिया जाता था।
● मेगस्थनीज के अनुसार बिक्री कर न देने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था।
सामाजिक व्यवस्था :-
● कौटिल्य ने शूद्रों को ‘आर्य’ कहते हुए उन्हें मलेच्छों से भिन्न बतलाया है।
● शूद्रों को शिल्पकार और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और व्यापार से अजीविका चलाने की अनुमति दी है।
● इन्हे दास बनाये जाने पर प्रतिबंध था।
● मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों मे विभाजित किया है :-
1. दार्शनिक
2. कृषक
3. अहीर
4. शिल्पी
5. सैनिक
6. निरीक्षक
7. सभासद
● स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। उन्हे पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी।
● स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। उन्हे पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी।
● घरेलु स्त्रियां ‘अनिष्कासिनी’ कहलाती थीं।
विवाह के प्रकार :-
ब्रह्म विवाह :-
● विवाह का सर्वोतम प्रकार, जिसके अन्तर्गत कन्या का पिता योग्य वर का चयन कर विधि पूर्वक कन्या प्रदान करता था। वर्तमान में प्रचलित है।
दैव विवाह:-
● विधिवत यज्ञ कर्म करते हुए ऋत्विज (विद्वान) को कन्या प्रदान करना।
आर्य विवाह :-
आर्य विवाह :-
● वर से एक जोड़ी गाय और बैल लेकर कन्या सौंपना।
प्रजापत्य विवाह :-
● वर को कन्या प्रदान करते हुए पिता आदेश देता था कि दोनों साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्य का निर्वाह करें।
आसुर विवाह :-
● कन्या का पिता वर को धन के बदले कन्या सौंपता था।
गन्धर्व विवाह :-
● प्रेम-विवाह
राक्षस विवाह :-
● कन्या का अपहरण कर विवाह करना।
पैशाच विवाह :-
● वर छल करके कन्या के शरीर पर अधिकार कर लेता था।
मौर्य प्रशासन :-
● मौर्य शासन व्यवस्था निरंकुश, कल्याणकारी तथा केन्द्रीभूत थी।
● यह व्यवस्था नौकरशाही तंत्रा पर आधारित थी।
● अर्थशास्त्र में राज्य को ‘सात प्रकृतियों की समष्टि’ कहा गया है। इनमें सम्राट की स्थिति ‘कूटस्थानीय’ होती थी।
● अन्य अंग थे- आमात्य, जनपद, कोष, दुर्ग, बल तथा मित्रा।
● इस काल में राजतंत्रा का विकास हुआ। शीर्षस्थ अधिकारी के रूप में 18 तीर्थों का उल्लेख मिलता है जिन्हें 48 हजार पण वेतन मिलता था।
● ‘आमात्य’ प्रशासनिक कार्य में सम्मिलित उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की सामान्य उपाधि था।
● ये वर्तमान के प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के सादृश्य थे।
● कर्मचारियों को वेतन नगद दिया जाता था।
● मेगस्थनीज के अनुसार सैन्य विभाग 30 सदस्यीय एक सर्वोच्च परिषद के नियंत्राण में कार्य करती थी जो 6 भागों में विभाजित था- जल सेना, यातायात, रसद विभाग, पैदल सैनिक, अश्वरोही सैनिक, हस्तिसेना तथा रथ सेना विभाग।
● सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति होता था।
● मौर्यों की गुप्तचर व्यवस्था अत्यंत कुशल थी जो ‘महामात्यपसर्प’ के अधीन कार्य करता था।
● गुप्तचरों को ‘गुढ़पुरूष’ कहा जाता था।
● एक ही स्थान पर रहकर गुप्तचरी का कार्य करने वाले ‘संस्था’ तथा भ्रमणकारी गुप्तचर ‘संचार’ कहलाते थे।
● मौर्य साम्राज्य के प्रशासन की विस्तृत जानकारी इण्डिका, अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों एवं तत्कालिक अभिलेखों से प्राप्त होती है।
● मौर्य प्रशासन के अन्तर्गत भारत में प्रथम बार राजनीतिक एकता देखने को मिली तथा सत्ता का केन्द्रीकरण हुआ।
● साम्राज्य में प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्तियों से पूर्व उनकी योग्यता एवं चरित्र को परखा जाता था, जिसे ’उपधा परिक्षण’ कहते थे।
● मौर्य साम्राज्य के प्रशासन का स्वरूप निम्नलिखित था :-
केन्द्रीय प्रशासन :-
राजा :-
● राजा शासन प्रणाली का केन्द्र बिन्दु था, महत्त्वपूर्ण एवं नीति संबंधी निर्णय राजा स्वयं लेता था।
● व्यवस्थापिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका की समस्त शक्तियाँं उसमें निहित थी।
मंत्रिपरिषद् :-
● राजा को परामर्श देने के लिए मन्त्रिपरिषद् थी, जिनकी नियुक्ति वंश व योग्यता के आधार पर राजा करता था।
● अन्तिम निर्णय का अधिकार राजा का था।
● एक आन्तरिक परिषद् होती थी, जिसे मन्त्रिण् कहा जाता था। जिसके 3-4 सदस्य होते थे। महत्त्वपूर्ण विषयों पर राजा मन्त्रियों से परामर्श करता था।
अधिकारी :-
● शीर्षस्थ राज्याधिकारी जो संख्या में 18 थे।
● इन्हें ’तीर्थ’ कहा जाता था।
● ये केन्द्रीय विभागों का कार्यभार देखते थे, जिनमें कोषाध्यक्ष, कर्मान्तिक, समाहर्ता, पुरोहित एवं सेनापति प्रमुख थे।
● इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र में 27 अध्यक्षों का उल्लेख मिलता है, जो राज्य की आर्थिक गतिविधियों का नियमन् करते थे।
● ये कृषि, व्यापार, वाणिज्य, बांट-माप, कताई-बुनाई, खान, वनों आदि का नियमन एवं नियंत्रण करते थे।
नगर प्रबन्ध :-
● नगर प्रबन्ध हेतु 5-5 सदस्यों की 6 समितियां होती थी, जो विभिन्न कार्यों, उद्योग एवं शिल्प, विदेशियों, जनगणना, वाणिज्य-व्यापार, निर्मित वस्तुओं की देखभाल, बिक्रीकर आदि के नियमन-विपणन एवं रखरखाव का कार्य करती थी।
● अर्थशास्त्र के अनुसार ’नागरक’ नगर प्रशासन का अध्यक्ष, गोप तथा स्थानिक उसके सहायतार्थ कर्मचारी थे।
सेना :-
● सैन्य विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति होता था।
● सेना की छः शाखाएंँ थी। जो क्रमशः पैदल, अश्व, हाथी, रथ, यातायात एवं नौ सेना में विभक्त थी।
● 5-5 सदस्यों की समिति इनकी देखरेख करती थी, जबकि कौटिल्य अर्थशास्त्र में चतुरंगबल को सेना का मुख्य अंग बताता है।
● ’नायक’ युद्धक्षेत्र में सेना का नेतृत्व करने वाला अधिकारी होता था।
गुप्तचर व्यवस्था :-
● प्रशासन तन्त्र के साथ-साथ गुप्तचर्या का भी विस्तृत जाल बिछाया गया था, जो मन्त्रियों से लेकर आम जनता की गतिविधियों पर नजर रखते थे।
● गुप्तचरों को संस्था एवं संचार नाम से पुकारा जाता था।
न्याय :-
● धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राजशासन न्याय संहिता के स्रोत थे।
● धर्मस्थीय एवं कंटक-शोधक न्यायालय क्रमशः दीवानी तथा फौजदारी मामले सुलझाते थे।
● न्यायपीठ पद्धति विद्यमान थी, राजा सर्वोच्च न्यायधीश था।
● राजुक, व्यावहारिक आदि न्यायिक अधिकारी थे।
● संग्रहण व द्रोणमुख स्थानीय एवं जनपद स्तर के न्यायालय होते थे।
● दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी।
पाटलिपुत्रा में केंद्रीय सर्वोच्च न्यायालय था जिसका सर्वोच्च न्यायाधीश सम्राट होता था।
● ‘धर्मस्थीय न्यायालय’ दीवानी अदालत थी। इसमें आने वाले चोरी, डकैती के मामले ‘साहस’ कहे जाते थे। जिसमें राज्य तथा व्यक्ति के बीच विवाद, सरकारी कर्मचारियों से विवाद आदि मामलों की सुनवाई होती थी।
● 800 गांवों के लिए स्थानीय न्यायालय, 400 गावों के लिए द्रोणमुख तथा 10 गांवों के लिए संग्रहण की व्यवस्था थी।
राजस्व प्रशासन :-
● समाहर्ता राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी था।
● दुर्ग, राष्ट्र, व्रज, सेतु, वन, खाने, आयात - निर्यात आदि राजस्व प्राप्ति के मुख्य स्रोत थे।
● सन्निधाता राजकीय कोष का मुख्य अधिकारी होता था।
जनोपयोगी कार्य :-
● मौर्य साम्राज्य में जनोपयोगी सेवाओं में सिंचाई, सड़क, सराय, चिकित्सा आदि को महत्त्व दिया गया, जिसकी व्यवस्था प्रशासनिक अधिकारी करते थे।
प्रांतीय शासन :-
● साम्राज्य चार प्रान्तों में विभाजित था।
● जिनका प्रशासक राजकुमार होता था, जो मंत्रिपरिषद् एवं अमात्यों के माध्यम से शासन संचालित करता था।
● चार प्रमुख प्रान्त थे -
◆ उत्तरापथ
◆ दक्षिणापथ
◆ अवन्तिपथ
◆ मध्यप्रान्त।
● धर्म महामात्र तथा अमात्य प्रान्तीय अधिकारी थे, जो धम्म एवं अन्य कार्य देखते थे।
● प्रान्तों को आहार या विषय में बाँटा गया था, जो विषयपति के अधीन होते थे।
जनपद व ग्रामीण -
● जनपद स्तर पर प्रदेष्ट, राजुक व युक्त नाम अधिकारी थे जो भूमि, न्याय व लेखों संबंधी दायित्व वहन करते थे।
● ग्रामिक, ग्रामीण स्तरीय अधिकारी था।
● गोप एवं स्थानिक जनपद व गाँवों के बीच मध्यस्थता का कार्य करते थे।
● इस प्रकार मौर्यकालीन प्रशासन एक केन्द्रीयकृत व्यवस्था थी।
● जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाएँं प्रायः नगण्य थी।
● गुप्तचर सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करते थे।
● नौकरशाही को विस्तृत अधिकार प्राप्त थे।
अशोक के प्रशासनिक सुधार -
● अशोक ने चन्द्रगुप्त मौर्य की प्रशासनिक व्यवस्था का अनुसरण किया यद्यपि उसने अपनी नीतियों एवं उद्देश्यों के क्रियान्वयन की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन एवं सुधार भी किए।
● अशोक ने प्रजा को अपनी संतान बताया एवं राजा के कर्त्तव्य के रूप में सर्वलोकहित और पराक्रम को रखा, जिसका उल्लेख उसके चौथे स्तम्भ लेख एवं कलिंग पृथक लेख में मिलता है।
● राजुक, युक्त एवं प्रादेशिक आदि अधिकारियों की नियुक्ति की, जो न्याय भूमि व लेखा संबंधी थे।
● 13वें वर्ष में अशोक ने धम्म महापात्र पद का सृजन किया, जिनका कार्य विभिन्न सम्प्रदायों में सांमजस्य, अकारण दण्डितों के परिवार को सहायता प्रदान करना था।
● अशोक ने ऐसी व्यवस्था की, जिसमें हर समय, हर जगह राजा के पास जनता के सुख-दुःख एवं समस्याओं की खबर पहुंचे।
● इस हेतु अशोक ने प्रतिवेदकों की नियुक्ति की, जिसका उल्लेख छठे शिलालेख में मिलता है।
● न्यायिक व्यवस्था में एकरूपता लाने के लिए 26वे वर्ष में राजुकों को न्याय संबंधी मामलों में स्वतन्त्र अधिकार प्रदान किए, जिसका उल्लेख चौथे स्तम्भ लेख में मिलता है
● अशोक ने दण्डविधन को उदार बनाया एवं अमानवीय यातनाओं को बंद किया।
● अभिषेक दिवस पर बन्दियों को मुक्त किया, जिसका उल्लेख पाचवे स्तम्भ लेख में मिलता है।
● मृत्युदण्ड प्राप्त व्यक्त्यिों को 3 दिन का समय पश्चाताप हेतु दिया. जिसका उल्लेख चौथे स्तम्भ लेख में मिलता है।
● अहिंसापरक सुधारों में अशोक ने युद्ध नीति को त्यागा तथा जहाँ तक संभव हो जीव हिंसा न करने की आज्ञा दी तथा समाजों पर प्रतिबंध लगाया।
● अशोक ने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को जन्म दिया तथा प्राणिमात्र के कल्याण के लिए चिकित्सा, सड़कें, कुएं व वृक्षारोपण आदि कार्यों नर बल दिया व बरामोण विकास को प्राथमिकता थी।
● स्त्राध्यक्ष, वृजभूमिक महामात्र, व्यावहारिक, अन्तमहामात्र आदि की नियुक्ति क्रमश: स्त्री पशु संरक्षण, न्याय व सीमावत्ती क्षेत्रों से संबंधित थी।
● साम्राज्य चार प्रान्तों में विभाजित था।
● इन नियुक्तियों के माध्यम से अशोक ने प्रशासन को आम जनता से जोड़ा।
● धम्म का आविष्कार करके, राजा, प्रजा एवं नौकरशाही के लिए एक संविदा तैयार की, जिससे अन्तः संबंधों में प्रगाढ़़ता आई ।
● अशोक ने वैदेशिक नीति को समसामयिक बनाया।
● इस प्रकार अशोक ने पूर्व प्रचलित मौर्य प्रशासन को ओर अधिक दक्ष एवं सक्षम बनाया।
4 टिप्पणियाँ
Lovely
जवाब देंहटाएंअरे लाखों में एक है यह पोस्ट लाखों में मेरे भाई तूने तो जिंदगी बना दी
जवाब देंहटाएंThanks bro
हटाएं🙏🙏🙏🙏🙏
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