क्या Bharat विभाजन अनिवार्य था?/Partition of India/भारत Ka बंटवारा क्यों हुआ?

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क्या भारत का विभाजन अनिवार्य था स्पष्ट करें ।



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क्या भारत विभाजन अनिवार्य था?


● 1946 तक तो भारत विभाजन के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता था। लेकिन

● 1947 में भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण ने एक वास्तविकता का रूप ग्रहण कर लिया। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के सम्बन्ध में विभिन्न विचार प्रकट किए गए हैं। 

भारत के विभाजन में किस नेता का योगदान रहा ?

मौलाना आजाद ने 1959 में प्रकाशित अपनी पुस्तक India wins freedom में यह विचार व्यक्त किया है कि भारत का विभाजन अनिवार्य नहीं था और जवाहर लाल नेहरू तथा पटेल जैसे नेताओं ने अपनी इच्छा से ही विभाजन के मार्ग को अपनाया, क्योंकि महात्मा गांधी तो अन्तिम दिनों तक इसके विरुद्ध थे, उन्होंने बँटवारे के कुछ दिन पूर्व ही यह बयान दिया था, ‘‘भारत का विभाजन मेरे शव पर होगा। जब तक मैं जिन्दा हूँ, भारत के दो टुकड़े नहीं होने दूँगा। यथासंभव मैं कांग्रेस को भी भारत का बँटवारा स्वीकार नहीं करने दूँगा।’’

● दुर्भाग्यवश नेहरू और पटेल ने माउंटबेटन के प्रभाव में आकर उसकी विभाजन सम्बन्धी योजना को स्वीकार कर लिया और फिर उन्होंने गांधी तथा कांग्रेस दल को विभाजन के पक्ष में कर लिया।

● इसके विपरीत कुछ अन्य व्यक्तियों का मानना है कि जुलाई 1946 से मार्च 1947 के बीच कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हुई, जिनके परिणामस्वरूप भारत का विभाजन अवश्यम्भावी हो गया। इस समय पटेल और नेहरू के समक्ष भारत के विभाजन को स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था।

● गम्भीर विचार के उपरान्त द्वितीय विचार ही सत्य के अधिक निकट प्रतीत होता है। यह ठीक है कि सर्वप्रथम नेहरू और पटेल ने ही विभाजन की योजना को स्वीकार किया था। 

● लेकिन नेहरू और पटेल भी भारत के अन्य राष्ट्रीय नेताओं की भाँति अखण्ड भारत के प्रबल समर्थक थे। 

● इसके अतिरिक्त वे दूसरे व्यक्तियों की तुलना में देश की सम्पूर्ण स्थिति से अच्छी तरह परिचित थे।

पटेल तथा नेहरू ने माउंटबेटन की योजना को इसलिए स्वीकार किया कि मुस्लिम लीग ने सारे भारत में साम्प्रदायिक दंगे भड़का दिए थे, जिसमें हजारों लोग मर रहे थे। मुस्लिम लीग विभाजित भारत के अतिरिक्त अन्य किसी बात पर समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। 

● ऐसी स्थिति में नेहरू और पटेल के सामने विभाजन को स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। 

● सम्बन्धित परिस्थितियों का अध्ययन करने से पता चलता है कि नेहरू तथा पटेल बँटवारे के दुष्परिणामों से भली प्रकार परिचित थे। वे हृदय से बंटवारे के पक्ष में न थे परन्तु यह निर्णय ऐसी स्थिति में किया गया निर्णय था, जबकि भारतीय समस्या के हल का अन्य कोई विकल्प ही नहीं रह गया था।

● श्री इन्द्र विद्यावाचस्पति के शब्दों में, ‘‘यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उस समय अनिवार्य समझकर कांग्रेस के नेताओं ने विभाजन के साथ स्वाधीनता को स्वीकार किया। यदि वह स्वीकृति न देती तो क्या परिणाम होता, इस प्रश्न का उत्तर इतिहास की सीमा से बाहर है।’’



विभाजन के कारण :-

भारत विभाजन के प्रमुख कारण क्या थे?

भारत का बंटवारा क्यों हुआ?

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा क्यों हुआ

भारत के विभाजन में किस नेता का योगदान रहा

कांग्रेस द्वारा विभाजन की स्वीकृति के कारण

भारत विभाजन के समय कौन-कौन सी समस्याएं थी वर्णन कीजिए

भारत और पाकिस्तान का विभाजन क्यों हुआ?


● जिन परिस्थितियों ने भारत विभाजन को अनिवार्य कर दिया था, उसकी व्याख्या इस प्रकार हो सकती है-

1. अंग्रेज सरकार की फूट डालो और शासन करने की नीति :- 

● अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य को बनाए रखने के लिए आरम्भ से ही ‘फूट डालो और शासन करो’(फूट डालो और राज करो) की नीति चलायी थी, जिसके कारण सदियों से एक दूसरे के साथ रहने वाली हिन्दू और मुसलमान जातियों को पारस्परिक सम्बन्ध बिगड़ गए। 

लार्ड मिन्टो ने साम्प्रदायवाद का बीज बोया, जिसके कारण भारत के राष्ट्रीय जीवन में विष संचार हुआ, उसकी चरम परिणति पाकिस्तान के रूप में प्रकट हुई। 

डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने खण्डित भारत में लिखा है, ‘‘पाकिस्तान के निर्माता कवि इकबाल या जिन्ना नहीं वरन् लार्ड मिण्टो थे।’’

ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए 1909ए 1919 एवं 1935 के

अधिनियमों द्वारा पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था कर पाकिस्तान का बीजारोपण कर दिया था।

● इसके पश्चात अंग्रेज निरन्तर मुसलमानों की माँगों का समर्थन करते रहे। और दोनों जातियों के हृदयों में एक दूसरे के प्रति अविश्वास उत्पन्न करते रहे और इस नीति को प्रोत्साहन देते रहे। 

1939 में एडवर्ड थोम्पसन ने विस्मय के साथ नोट किया था, ‘‘कतिपय सरकारी पदाधिकारी पाकिस्तान के विचार के प्रति कड़े उत्साही थे।’’

● अंग्रेज अधिकारियों की सहानुभूति पाकिस्तान के साथ थी और वायसराय के संवैधानिक परामर्शदाता वी.पी. मेनन ने सरदार वल्लभभाई पटेल को यह समझाया कि गृह युद्ध की तरफ बढ़ने की बजाय देश का बँटवारा स्वीकार कर लेना अच्छा है।’’

1940 में लीग ने पाकिस्तान की प्राप्ति को अपना राजनीतिक लक्ष्य घोषित किया। इसके पश्चात ब्रिटिश सरकार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लीग की इस माँग का समर्थन करती रही। 

● लीग ने 1946 में पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए सीधी कार्यवाही प्रारम्भ कर दी, जिसके कारण सारे देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। 

● ऐसे समय में ‘‘ब्रिटिश शासन ने कभी भी सामुदायिक उपद्रवों को दबाने में आवश्यक दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्योंकि वे उपद्रव ब्रिटिश शासन की नीति के अनुरूप ही थे।’’ 

● ऐसी स्थिति में मुसलमानों को पुलिस प्रतिरक्षा, सूचना विभाग एवं यातायात विभाग में महत्त्वपूर्ण पदों पर लगाया जा रहा था। 

मुस्लिम लीग के सदस्य अन्तरिम सरकार में शामिल होने के बाद काँग्रेस के मन्त्रियों के लिए सिरदर्द बन गए।

● ऐसी स्थिति में नेहरू ने तंग आकर ये शब्द कहे, ‘‘हम सरदर्द से छुटकारा पाने के लिए सिर कटवाने को तैयार हो गए।’’ 

● वस्तुतः मुस्लिम लीग की कार्रवाई ने अन्तरिम सरकार का कार्य करना मुश्किल कर दिया था, इसलिए सरदार पटेल ने 25 दिसम्बर 1948 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए कहा था, ‘‘मैंने महसूस किया है कि यदि हम पाकिस्तान

की स्थापना के लिए न मानते, तो भारत बहुत छोटे टुकड़ों में बँट जाता और बिल्कुल नष्ट-भ्रष्ट हो जाता पद सम्भालने के बाद मुझे अनुभव हुआ कि हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं। केवल एक पाकिस्तान नहीं बनता, बल्कि अनेक बनते। प्रत्येक दफ्तर में पाकिस्तान की एक इकाई होती।’’ 

● नवम्बर 1949 में संविधान सभा में भाषण देते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा,‘‘मैं देश के बँटवारे के लिए उस समय माना, जबकि इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहा।  हम उस समय ऐसी अवस्था में पहँंच गये, यदि हम देश का बंटवारा न मानते, तो सब कुछ हमारे हाथ से चला जाता।’’

● अंग्रेजों ने ‘फूट डालो एवं राज करो’ की नीति का अनुसरण करते हुए पृथकतावाद को बढ़ावा दिया।

● ब्रिटिश सरकार ने अन्य सम्प्रदायों की उपेक्षा कर मुस्लिमों का पक्ष लिया। 

1909 के मार्ले मिन्टो अधिनियम के द्वारा साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया। 

● इसके अनुसार मुस्लिमों को पृथक् प्रतिनिधित्व एवं विधानमंडलों में उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया। 



अंग्रेजों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उपयोग भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के विरूद्ध एक हथियार के रूप में किया।


● 1945 ई. में वेवेल ने कार्यकारिणी परिषद् के प्रस्ताव में 5-5 सदस्यों के नाम मुस्लिम लीग एवं काँग्रेस से देने के लिए कहा था, जबकि काँग्रेस मुस्लिम लीग की तुलना में अधिक लोगों  का प्रतिनिधित्व करती थी। 

● इस प्रकार उसने दोनों को बराबरी का दर्जा देकर मुस्लिम लीग को बढ़ावा दिया। जिन्ना ने समस्त मुस्लिम सदस्यों के नाम मुस्लिम लीग द्वारा दिए जाने की माँग की। 

शिमला सम्मेलन में जिन्ना को एक प्रकार से वीटो का अधिकार दे दिया गया। वेवेल ने शिमला सम्मेलन के निर्णयों को मुस्लिम लीग द्वारा अस्वीकृत किये जाने पर शिमला सम्मेलन समाप्त घोषित कर दिया था।



2. कांग्रेस की दोषपूर्ण नीतिः 

● अनेक विचारकों का मत है कि कांग्रेस की मुस्लिम लीग के प्रति दोषपूर्ण नीति ने भी मुस्लिम लीग को पाकिस्तान की माँग पर बल देने के लिए प्रोत्साहित किया। 

● कांग्रेस हमेशा मुस्लिम लीग से समझौता करने को उत्सुक रहती थी। इससे लीग का अनावश्यक महत्त्व बढ़ गया और वह यह समझने लगी कि उसके बिना कांग्रेस भारत की किसी भी संवैधानिक समस्या का समाधान नहीं कर सकती है।

● समय-समय पर कांग्रेस ने लीग की अनुचित माँगों को स्वीकार करके उसका महत्त्व बढ़ाने में योगदान दिया। 

● कांग्रेस ने 1916 में लखनऊ समझौते में अपने सिद्धान्तों की तिलाँजलि देकर मुसलमानों के पृथक

प्रतिनिधित्व एवं उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व को मानकर भारत में सम्प्रदायवाद को स्वीकार कर लिया। 

● 1919 में असहयोग के प्रश्न को खिलाफत के साथ मिलाया और 1932 में साम्प्रदायिक निर्णय के प्रति उसके दृष्टिकोण ने भी मुस्लिम पृथकतावाद

को प्रोत्साहित ही किया। 

डा0 लाल बहादुर शास्त्री के शब्दों में, ‘‘कांग्रेस ने लीग के प्रति तुष्टिकरण की नीति को अपनाया और इस प्रकार न चाहते हुए भी उसे निरन्तर बढ़ते हुए दावे करने के लिए प्रेरित किया। 

मुसलमानों को खुश करने की उत्सुकता में इसने अपने सिद्धान्तों की बलि दे दी। 

कांग्रेस मुस्लिम लीग को सन्तुष्ट करने के लिए सदा झुकती रही और मुस्लिम लीग को छूट देती रही। 

सी.आर. फार्मूले में भी लीग की पाकिस्तान की माँग काफी सीमा तक स्वीकार कर ली गयी थी। इस फार्मूले के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गांधीजी जिन्ना के पीछे भागते रहे। इससे जिन्ना का महत्त्व बढ़ा। 

● इसके अतिरिक्त 14 जून 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में पं0 जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘‘कांग्रेस भारतीय

संघ में किसी भी इकाई को बलपूर्वक रखने के विरुद्ध है।’’ सरदार वल्लभ भाई पटेल ने

भी इस बात का समर्थन किया। 

● इन सब बातों से जिन्ना समझ चुका था, ‘‘कांग्रेस अन्त में परिस्थिति से विवश होकर बँटवारे के लिए मान जाएगी। 

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता को आवश्यक मानते हुए मुस्लिमों का सहयोग प्राप्त करने के लिए तुष्टिकरण की नीति अपनाई गयी। 

1916 के लखनऊ समझौते में कांग्रेस ने मुस्लिमों के लिए पृथक  प्रतिनिधित्व एवं विधानमंडलों में उन्हें जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व दिए जाने के अधिकार को स्वीकार कर लिया। यह बहुत बड़ी भूल थी। 

1923 ई. से 1933 ई. तक ‘हिन्दू महासभा’ ने लखनऊ समझौते को संशोधित करवाने के प्रयास 

किए। 

● देश की साम्प्रदायिक समस्या को हल करने के लिए गाँधी ने सी. आर. फार्मूले (1944 ई.) पर जिन्ना से बात की। 

● सी. आर. फार्मूले के अनुसार मुस्लिम लीग को भारतीय स्वतंत्रता की माँग का समर्थन करना था एवं युद्ध-समाप्ति के बाद उत्तरपश्चिमी एवं उत्तरपूर्वी भारत के उन क्षेत्रों में जहाँ मुस्लिम बहुमत में है, जनमत द्वारा निर्णय लिया जाना था कि वे भारत से अलग होना चाहते हैं अथवा नहीं। 

महात्मा गाँधी ने जिन्ना को बार-बार मनाने का प्रयास किया। गाँधी के साथ वार्ता के बाद जिन्ना का महत्व अधिक बढ़ गया। 

मुस्लिम लीग को संविधान सभा में भाग लेने के लिए सहमत किए बिना ही 1946 ई. की अंतरिम सरकार में सम्मिलित कर लिया गया। 

मुहम्मद अली जिन्ना राजनैतिक परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए शक्तिशाली बनता गया और ‘कायदे आजम’ (महान संगठनकर्ता) कहलाने लगा।

तुष्टिकरण की नीति के परिणामस्वरूप मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला।

मुस्लिम लीग को अनावश्यक महत्त्व देना तथा उसके पीछे भागना कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती थी।


3. जिन्ना जिद और हठधर्मी : -

● कांग्रेस नेता यह मानते थे कि, ‘‘हमारा मुख्य संघर्ष ब्रिटिश सरकार से है न कि जनता के साथ। इसलिए राष्ट्रीय आन्दोलन में मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए और भारत की संवैधानिक समस्या का हल करने के लिए कांग्रेसी नेता जिन्ना से बातचीत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे और उसकी माँग को पूरा करने का हर सम्भव प्रयास करते थे। 

जिन्ना ने सदैव ही इस बात का अनुचित लाभ उठाया। उसने अपनी माँगों में वृद्धि करना जारी रखा। जिन्ना की जिद और हठधर्मी के कारण गोलमेज सम्मेलन, राजगोपालाचारी योजना, वेवल योजना तथा केबिनेट योजना असफल हो गयी।

● उसी के कारण साम्प्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल सका। 

● उसने पाकिस्तान की माँग पर अड़ना जारी रखा। उसने कांग्रेस को महाहिन्दू संस्था माना और अपने आपको मुसलमानों का प्रतिनिधि।’’

● 1937 के चुनाव हुए, उसमें आठ प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बनी। जिन्ना हमेशा कांग्रेसी नेताओं पर मनगढ़न्त आरोप लगाता रहा कि कांग्रेसी नेता उन आठ प्रान्तों में रहनेवाले मुसलमानों पर अत्याचार कर रहे हैं। 

● द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ करने पर जब ब्रिटिश सरकार का विरोध कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्याग पत्रा दिये, तब जिन्ना ने ‘मुक्ति दिवस’ मनाया।

● साम्प्रदायिक समस्या को हल करने के लिए गांधीजी बार-बार जिन्ना के पीछे भागते थे। 

● इससे सरदार पटेल, मौलाना आजाद जैसे कांग्रेसी नेता उससे नाराज हो गये। वे नहीं चाहते थे कि गांधीजी बार-बार जिन्ना से बातचीत करें, क्योंकि इससे उसके सम्मान में वृद्धि हो रही थी तथा वह दिन-प्रतिदिन जिद्दी व हठधर्मी बनता जा रहा था। 

● उसने पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए सीधी कार्यवाही प्रारम्भ की, जिससे देश में चारों ओर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे और निर्दोष लोगों का कत्लेआम शुरू हो गया। इन दंगों में हजारों व्यक्ति मारे गये। 

● जिन्ना को पाकिस्तान मिल गया। उसके बाद भी वह शान्त नहीं हुआ, उसने पाकिस्तान में रहनेवाले हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार करके उन्हें वहाँ से निकाल दिया। 

ब्रिटिश सरकार तथा गांधीजी दोनों ने ही जिन्ना की हठधर्मी को प्रोत्साहित किया था। यद्यपि उसके लिए अंग्रेज अधिक जिम्मेदार थे। 

● इन परिस्थितियों में कांग्रेस ने अनमने रूप से भारत विभाजन को स्वीकार कर लिया। 

3 जून 1947 को लार्ड माउण्टबेटन ने कहा था, ‘‘एक अखण्ड भारत भारतीय समस्या का सर्वोच्च समाधान होता लेकिन चूँकि पाकिस्तान के अलावा अन्य किसी आधार पर दलों में समझौता होने की सम्भावना नहीं थी इसलिए उन लोगों ने भारत विभाजन को हिचक के साथ स्वीकृति दे दी।’’

भारत के विभाजन में मुस्लिम लीग एवं उसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना की प्रमुख भूमिका थी। मुस्लिम लीग ने दो राष्ट्र के सिद्धांत पर आधारित 

मुस्लिमों के लिए पृथक् राष्ट्र की माँग की। 

मुहम्मद इकबाल ने 1930 में मुस्लिम लीग के अपने अध्यक्षीय भाषण में मुस्लिमों के लिए एक पृथक् राज्य की स्थापना की बात कही। उन्होंने उत्तर पश्चिमी भारत के मुस्लिम बहुमत वाले प्रांतों को एक राज्य बना दिए जाने की बात कही।

‘पाकिस्तान’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग लंदन में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विद्यार्थी चौधरी रहमत 

अली एवं उसके साथियों ने किया। 

जनवरी 1933 में ‘अब या फिर कभी नही’ पत्रक में ‘पाकिस्तान’ शब्द का प्रयोग किया गया। इसमें भारत में तीन मुस्लिम राज्यों की स्थापना की बात की गयी :-

1. पाकिस्तान - पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान को जोड़कर ‘पाकिस्तान’ बनाने की बात कही गयी। 

2. उस्मानिस्तान - हैदराबाद रियासत को ‘उस्मानिस्तान’ नाम दिया गया। 

3. बंग ए इस्लाम - संपूर्ण बंगाल और आसाम को मिलाकर ‘बंग ए इस्लाम’ बनाने की बात कही गयी।

● 1937 के प्रांतीय चुनावों में मुस्लिम लीग को सफलता नहीं मिली। 

● 1937 में काँंग्रेस ने मुस्लिम लीग के संयुक्त सरकार बनाने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। 

● 1937 के चुनावों की सफलता के बाद जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिमों को काँग्रेस की ओर आकर्षित करने के लिए मुस्लिम जनसंपर्क अभियान किया।  इसका विरोध मुस्लिम लीग ने किया। 

मुस्लिम लीग स्वयं को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि समझती थी। मुस्लिम लीग एवं जिन्ना ने पृथक्तावादी नीति अपनाई। 

● मुस्लिम लीग ने काँग्रेस मंत्रिमंडलों द्वारा मुस्लिमों पर अत्याचार करने के मनगढ़ंत आरोप लगाकर साम्प्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया गया।

● काँग्रेस मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र देने पर 22 दिसम्बर 1939 को मुस्लिम लीग ने ‘मुक्ति दिवस’ मनाया। 

23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में ‘पाकिस्तान’का प्रस्ताव पारित किया।



4. सत्ता के प्रति आकर्षण :-

कांग्रेसी नेता सत्ता प्राप्ति के लिए बहुत उतावले हो गये थे, इसलिए भी उन्होंने देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। बड़े लम्बे संघर्ष के साथ उन्होंने सत्ता का स्पर्श किया था। अतः वे किसी भी प्रकार से सत्ता हथियाना चाहते थे। 

● वे संघर्ष करते थक गये थे तथा अब और संघर्ष करने को तैयार नहीं थे। अब वे किसी भी कीमत पर भारत को स्वतन्त्रा देखना चाहते थे। 

● इसलिए देश विभाजन की कीमत पर भी विदेशी सत्ता से मुक्ति पाने के लिए तैयार हो गये। माईकेल ब्रेचर के अनुसार, ‘‘कांग्रेसी नेताओं के सम्मुख सत्ता के प्रति आकर्षण भी था। इन नेताओं ने अपने राजनीतिक जीवन का अधिकाँश भाग ब्रिटिश विरोध में बिताया था और अब वे स्वाभाविक रूप से सत्ता के प्रति आकर्षित हो रहे थे। कांग्रेसी नेता सत्ता का आस्वादन कर ही चुके थे और विजय की घड़ी में इससे अलग होने के इच्छुक नहीं थे।’’


5. साम्प्रदायिक दंगे :- 

● जब मुस्लिम लीग को संवैधानिक साधनों के माध्यम से पाकिस्तान की माँग को स्वीकार करवाने के लक्ष्य में सफलता नहीं मिली तो उसने मुसलमानों को साम्प्रदायिक उपद्रवों के लिए उत्तेजित किया। 

● परिणामस्वरूप देश में चारों ओर साम्प्रदायिक दंगे तथा उपद्रव शुरू हो गये। इनमें हजारों व्यक्ति मर रहे थे। 

● बदले की भावना से हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के रक्त से होली खेल रहे थे। 

16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग की प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस पर कलकत्ता में सात हजार व्यक्ति मारे गये। इस प्रकार की घटनाएँ नोआखली और त्रिपुरा में हुई। 

● तत्पश्चात् ये दंगे बिहार एवं उत्तर प्रदेश में फैल गये और साम्प्रदायिक दंगों को चरमोत्कर्ष पर देखा गया पंजाब में। 

● साराँश यह है कि जुलाई 1946 के बाद दंगों का ऐसा सिलसिला प्रारम्भ हुआ, जो लगभग एक वर्ष तक चलता रहा। देश में चारों ओर अव्यवस्था फैल गयी। इन दंगों को रोकने में अन्तरिम सरकार को सफलता प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि सेना और पुलिस पर इसका नियन्त्राण न होकर अंग्रेज सरकार का

था तथा जिन प्रान्तों में मुस्लिम लीग का शासन था, वहाँ की सरकार मुस्लिम उपद्रवकारियों को सहायता दे रही थी। मुस्लिम लीग इन दंगों के माध्यम से कांग्रेस को आतंकित कर विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कराना चाहती थी।

● यदि अंग्रेज सरकार चाहती तो इन दंगों पर नियन्त्राण कर सकती थी। परन्तु वह शान्ति के पक्ष में नहीं थी, उसने इन दंगों को और भी बढ़ाने का प्रयास किया। 

● वे भारतीयों को बताना चाहते थे कि वे स्वतन्त्राता के योग्य नहीं हैं। यदि उन्हें स्वतन्त्राता दे दी गयी तो वे आपस में लड़ मरेंगे। 

● वस्तुतः अंग्रेज पाकिस्तान की स्थापना के पक्ष में थे, क्योंकि जिन्ना उनको पाकिस्तान में अपना प्रभाव रखने देने के लिए तैयार था। 

महात्मा गांधी के निजी सचिव प्यारे लाल ने इस सम्बन्ध में लिखा है, ‘‘जिन्ना ने माउण्टबेटन को यह कहा था कि यदि अंग्रेज पाकिस्तान की स्थापना में उसकी सहायता करेंगे तो वह पाकिस्तान को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में रखने को तैयार है।’’

● इन दंगों की भीषणता ने कांग्रेस के दृष्टिकोण में परिवर्तन ला दिया। 

● इसका प्रमाण तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी का वह भाषण है जो उन्होंने 15 जून 1947 को दिया। इसमें उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों का विभत्स दृश्य प्रस्तुत करते हुए कहा, ‘‘मैंने एक कुँआ देखा है जिसमें 107 महिलाओं ने अपनी इज्जत बचाने के लिए छलांग लगाकर जान दे दी। एक दूसरी जगह एक धर्मस्थान में पुरूषों ने पचास स्त्रियों को इसी कारण अपने हाथों वध कर

डाला। मैंने एक घर में हड्डियों का ढेर देखा है जिसमें आक्रमणकारियों ने 307 व्यक्तियों को बन्द कर जिन्दा जला डाला था इन भयानक दृश्यों को देखकर इस समस्या के सम्बन्ध के बारे में मेरे विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ा है और अन्य अनेक व्यक्तियों के समान मैं यह सोचने लगा हूँ कि विभाजन ही इस समस्या का एकमात्रा विकल्प है।’’ 

● इस प्रकार देश में बढ़ती हुई अराजकता हिंसा और गृहयुद्ध ने भी कांग्रेसी नेताओं को काफी प्रभावित किया।

कांग्रेस ने भोली-भाली जनता के रक्तपात की अपेक्षा विभाजन को स्वीकार करना अच्छा समझा।



6. दबाव द्वारा एकता अवाँछनीय :-

● कांग्रेसी नेताओं को यह विश्वास हो गया था कि भारत के अधिकाँश मुसलमान पाकिस्तान के पक्ष में हैं। अतः बाह्यकारी एकता देश के हित में नहीं

होगी। 

● दबाव के आधार पर गठित संघ न तो स्थायी हो सकता था और न ही लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के अनुकूल था। 

● इसके अतिरिक्त संघ में इन अवाँछित तत्त्वों का होना देश के हितों के लिए उपयोगी नहीं था। 

पं0 नेहरू ने अपने साथियों से इस सम्बन्ध में ये शब्द कहे थे, ‘‘यदि उन्हें भारत में रहने के लिए बाध्य किया गया तो प्रगति और नियोजन नितान्त असम्भव हो जायेंगे।’’ 

सरदार पटेल ने भी एक प्रकार से इसी विचारधारा का समर्थन किया था, जब उन्होंने 15 जून 1947 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कहा था, ‘‘यदि एक अंग में विष संचार हो जाए तो उसे तुरन्त शरीर से अलग कर देना चिहए। ऐसा न हो कि इससे सारा शरीर पीड़ित हो जाए और फिर उपाय करना सम्भव न रहे।’’


7. कांग्रेस की भारत को शक्तिशाली बनाने की इच्छा :-

कांग्रेसी नेता, मुस्लिम लीग की तोड़फोड़ की नीति से समझ गये थे कि वह किसी भी बात पर कांग्रेस को सहयोग नहीं देगी।

● ऐसी स्थिति में भारत कभी भी शक्तिशाली देश नहीं बन सकेगा। 

● इसलिए सरदार पटेल ने कहा था, ‘‘मैंने उस समय महसूस किया कि भारत को मजबूत और सुरक्षित करने का यही तरीका है कि शेष भारत को संगठित किया जाए।’’ 

● मुस्लिम लीग केन्द्र को निर्बल बनाना चाहती थी, ताकि भारत कभी भी शक्तिशाली राष्ट्र न बन सके।

● इसलिए सरदार पटेल ने कहा था, ‘‘बँटवारे के बाद हम कम से कम 75 या 80 प्रतिशत भाग को शक्तिशाली बना सकते हैं, शेष को मुस्लिम लीग बना सकती है।’’ ऐसी स्थिति में कांग्रेस को देश का बँटवारा मानना पड़ा। 

भारत विभाजन के नौ साल बाद पं0 जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘‘हमने इस बात को दृष्टि में रखते हुए कि विशाल भारत की अपेक्षा सशक्त भारत अच्छा है, भारत विभाजन को स्वीकार किया। हमने उन लोगों को जो उसमें रहना चाहते थे, मजबूर करना उचित न समझा।’’


8. अन्तरिम सरकार की असफलता :-

केबिनेट मिशन योजना के अन्तर्गत अक्टूबर 1946 में अन्तरिम सरकार की व्यवस्था की गयी थी, जिसमें लीग के पाँच प्रतिनिधियों को भी

सम्मिलित किया गया था। 

● लीग अन्तरिम सरकार में कांग्रेस के साथ सहयोग करने के लिए नहीं, वरन पग-पग पर बाधाएँ डालने हेतु ही इसमें सम्मिलित हुई थी। 

● इस प्रकार लीग के प्रतिनिधि कांग्रेसी साथियों के लिए दुख का बहुत बड़ा कारण बन गये थे।

● अन्तरिम सरकार में लियाकत अली खाँ वित्त मंत्री थे। उन्होंने कुछ मुस्लिम कर्मचारियों के सहयोग से कांग्रेसी मन्त्रियों को बहुत तंग किया। उसने उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रत्येक सुझाव को अस्वीकार करने या उसमें विलम्ब करने का मार्ग अपनाया। 

कांग्रेसी मंत्री लियाकत अली की स्वीकृति के बिना एक चपरासी की नियुक्ति भी नहीं कर सकते थे। 

● फलतः मन्त्रिमण्डल में रोज झगड़े होने लगे और सरकार का कार्य सुचारू ढंग से चलना असम्भव हो गया।

● कांग्रेसी नेता यह समझ चुके थे कि लीग के साथ मिलकर शासन का संचालन नहीं किया जा सकता है इसलिए सरदार पटेल ने कहा, ‘‘यदि शरीर का एक भाग खराब हो जाए तो उसको शीघ्र हटाना ठीक है, ताकि सारे शरीर में जहर न फैले। मैं मुस्लिम लीग से छुटकारा पाने के लिए भारत का कुछ भाग देने के लिए तैयार हूँ।’’



9. सत्ता हस्तान्तरण की धमकी :-

● 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की कि प्रत्येक स्थिति में ब्रिटिश सरकार जून 1948 ई0 तक भारतीयों को सत्ता सौंप देगी।

● अब कांग्रेसी नेताओं को भारत विभाजन और गृहयुद्ध में से एक को स्वीकार करना जरूरी था।

● चूँकि गृहयुद्ध की अपेक्षा भारत विभाजन कम हानिकारक था। इसलिए नेहरू तथा पटेल ने इसे स्वीकार कर लिया। 

पं0 नेहरू ने कहा, ‘‘यदि हमें आजादी मिल भी जाती, तो भारत निसन्देह निर्बल रहता, जिससे इकाईयों के पास कुछ अधिक शक्तियाँ रहती और संयुक्त भारत में सदैव कलह और झगड़े रहते। इसलिए हमने देश का बँटवारा स्वीकार कर लिया, ताकि हम भारत को बलशाली बना सकें। जब दूसरे हमारे साथ रहना ही नहीं चाहते थे तो हम उन्हें क्यों और कैसे मजबूर कर सकते थे।’’ 

पं0 नेहरू ने एक अन्य स्थान पर कहा, ‘‘हालात की मजबूरी थी और यह महसूस किया गया कि जिस मार्ग का हम अनुसरण कर रहे हैं, उसके द्वारा गतिरोध को हल नहीं किया जा सकता। अतः हमें देश का बँटवारा स्वीकार करना पड़ा।’’ 

● भारत के स्वतन्त्र होने के बाद पं0 नेहरू ने इस सम्बन्ध में कहा था, ‘‘यदि हम उस समय भारत विभाजन को स्वीकार न करते तो गृहयुद्ध के कारण हमारा देश नष्ट-भ्रष्ट हो जाता और आगामी कई वर्षों तक भारत की उन्नति रुक जाती।’’ 

● इसके अतिरिक्त कांग्रेसी नेताओं ने सोचा कि माउण्टबेटन योजना को अस्वीकार करने की अवस्था में ब्रिटिश सरकार इससे भी अधिक हानिकारक योजना लाद देगी। 

● अतः कांग्रेसी नेताओं ने भारत विभाजन को स्वीकार कर लिया।


10. पाकिस्तान की स्थिरता में सन्देह :-

● अधिकाँश कांग्रेसी नेताओं का विचार था कि राजनीतिक, भौगोलिक, आर्थिक और सैनिक दृष्टि से पाकिस्तान एक कमजोर राष्ट्र सिद्ध होगा और

अपने सीमित साधनों के कारण अधिक समय तक जीवित न रह सकेगा। 

● परिणामस्वरूप आज अलग होनेवाले ये क्षेत्र देर सबेर से फिर भारतीय संघ में सम्मिलित हो जाएँगे।

● इस प्रकार की आशा व्यक्त करते हुए कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस

के समक्ष ये शब्द कहे, ‘‘भारत की एकता का कार्य भारत का सुदृढ़, सुखी, गणतन्त्रात्मक और

समाज सत्तावादी राज्य बनाकर किया जा सकता है। इस प्रकार का भात अपने बिछड़े बच्चों को फिर अपनी गोद में बिठा सकता है। भारत की एकता के बिना उसकी स्वतन्त्राता अधूरी ही रह जाएगी।’’

● ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेसी नेताओं ने पाकिस्तान की स्थिरता में सन्देह के कारण भारतीय समस्या के अस्थाई हल के रूप में विभाजन की योजना को स्वीकार कर लिया। लेकिन 1947 की यह आशा यथार्थ रूप ग्रहण न कर सकी।



11. तुरन्त स्वतन्त्राता प्राप्त करने के लिए :-

कांग्रेस ने तुरन्त स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। 

ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम लीग को अन्तरिम सरकार में इसलिए शामिल किया था ताकि कांग्रेस और इसमें मतभेद चलता रहे और इन मतभेदों को

सुलझाने का बहाना बनाकर वह भारत पर शासन करती रहे। 

माउण्टबेटन ने कहा था, ‘‘यदि ऐसी परिस्थिति में हिन्दुस्तान की पार्टियाँ हमें ठहरने के लिए कहेगी तो हमें ठहरना पड़ेगा।’’

● कांग्रेसी नेताओं का यह मानना था कि यदि अंग्रेज भारत छोड़कर नहीं गये तो देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाएगा। 


● जिन प्रान्तों में मुस्लिम लीग का शासन था, वहाँ चपरासी से लेकर उच्च पदों पर मुसलमान नियुक्त किये जा रहे थे और हिन्दुओं को हटाया जा रहा था। 


● इसलिए सरदार पटेल ने कहा था कि यदि पाकिस्तान की माँग नहीं मानी गयी तो प्रत्येक दफ्तर में लीग की एक इकाई स्थापित हो जाएगी।

● कांग्रेस ने मुस्लिम लीग तथा अंग्रेजों के गठबन्धन को देश के लिए घातक समझा। 

सरदार पटेल ने कहा था, ‘‘मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि सबसे अच्छा तरीका यह है कि अंग्रेजों को भारत से शीघ्र निकाला जाए, चाहे देश का बँटवारा भी करना पड़े।’’ 

कांग्रेस की बैठक में माउण्टबेटन की योजना के बारे में गोविन्द वल्लभ पन्त ने ये शब्द कहे, ‘‘3 जून की योजना की स्वीकृति ही देश के लिए स्वराज और स्वाधीनता पाने का एकमात्रा मार्ग है। इसके अन्तर्गत हम एक शक्तिशाली केन्द्र वाला ऐसा भारतीय संघ बनाना चाहते हैं जो राष्ट्र को प्रगति के पथ पर ले जा सके. आज हमारे सामने दो विकल्प हैं 3 जून की योजना की स्वीकृति या आत्महत्या।’’


12. लार्ड माउण्टबेटन का प्रभाव :-

लार्ड माउण्टबेटन का व्यक्तिगत प्रभाव भी कांग्रेस द्वारा विभाजन प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए उत्तरदायी था। 

● जब लार्ड माउण्टबेटन भारत के गवर्नर जनरल बनकर आए, तो उन्होंने देखा कि देश में चारों ओर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे, जिसके कारण अव्यवस्था फैली हुई थी। 

● अतः उन्होंने यह अनुभव किया कि भारतीय

समस्या का एकमात्रा हल भारत का विभाजन है। 

● इसी समय माउण्टबेटन ने यह भी कहा कि मुस्लिम लीग भारत में कभी भी शान्ति और व्यवस्था नहीं रहने देगी। 

● परिणामस्वरूप भारत कभी भी शक्तिशाली देश नहीं बन सकेगा और फिर जब कोई सम्प्रदाय भारत में रहना ही नहीं चाहता तो उसे इसके लिए विवश नहीं करना चाहिए। 

लार्ड माउण्टबेटन के प्रभावशाली व्यक्तित्व और अकाट्य तर्कों से नेहरू व पटेल काफी प्रभावित हुए और उन्होंने विभाजन को स्वीकार कर लिया।



मौलाना आजाद के अनुसार, ‘‘लार्ड माउण्टबेटन के भारत आने के एक माह के अन्दर पाकिस्तान के दृढ़ विरोधी नेहरू विभाजन के समर्थक नहीं तो कम से कम उसके प्रति तटस्थ हो गए। इस कठिन कार्य में लार्ड माउण्टबेटन को अपनी आदर्श पत्नी (एडविना माउंटबेटन) से बहुत सहायता मिली, जिन्होंने नेहरू को अपने पति से अधिक प्रभावित किया।’’


● उपरोक्त कारणों से देश का विभाजन अनिवार्य हो गया था। वास्तव में मुस्लिम लीग के एक सुनियोजित षड्यंत्रा के कारण देश का विभाजन हुआ। 

● फलतः देश में साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। निर्दोष व्यक्तियों के खून से होली खेली गयी। इसके बावजूद भी जिन्ना को काटा-पीटा दीमक लगा

पाकिस्तान मिला। वह उस पाकिस्तान को प्राप्त नहीं कर सका जिसकी कल्पना 1930 में इकबाल

ने की थी। 

भारत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान में जो घटनाएँ घटित हुई और भारत में जो उसकी प्रतिक्रिया हुई, उससे इतिहास कलंकित है।


1947 में भारत का विभाजन किस आधार पर हुआ था

भारत का विभाजन किस आधार पर हुआ


मि0 जिन्ना द्वारा द्विराष्ट्र सिद्धान्त का प्रतिपादन और 1947 में भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया था। 

● लेकिन बाद की घटनाओं से स्पष्ट हो गया कि उनका द्विराष्ट्र सिद्धान्त मूर्खतापूर्ण तथा अदूरदर्शितापूर्ण था। 

● धार्मिक आधार पर निर्मित यह राज्य स्थाई नहीं रहा और 1972 ई0 में पूर्वी पाकिस्तान ने अपने आपको स्वतन्त्रा घोषित कर ‘बंग्लादेश’ के रूप में प्रकट किया। 

● इस प्रकार 1971 में पाकिस्तान का पुनर्विभाजन हो गया। इस ऐतिहासिक घटना से लीग के द्विराष्ट्र सिद्धान्त का खोखलापन सिद्ध हो चुका था।




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भारत का बंटवारा क्यों हुआ?

भारत विभाजन के प्रमुख कारण क्या थे?

देश का विभाजन क्यों हुआ?

क्या भारत का विभाजन अनिवार्य था स्पष्ट करें ।

विभाजन से पूर्व भारत को क्या कहा जाता था?

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भारत-पाकिस्तान का बंटवारा क्यों हुआ

भारत-पाकिस्तान का विभाजन कब हुआ

भारत के विभाजन में किस नेता का योगदान रहा

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